स पर्यगाच्छुक्रमकायमव्रणमस्नाविर शुद्धमपापविद्धम्।
कविर्मनीषी परिभूः स्वयम्भूर्याथातथ्यतोऽर्थान् व्यदधाच्छाश्वतीभ्यः समाभ्यः॥४०-८॥
कविर्मनीषी परिभूः स्वयम्भूर्याथातथ्यतोऽर्थान् व्यदधाच्छाश्वतीभ्यः समाभ्यः॥४०-८॥
यह पूजनीय यजुर्वेद का मन्त्र है। इसका अभिप्राय है कि वह परमात्मा सर्वत्र व्यापक है। शक्तिशाली, शरीर-रहित, घाव रहित, बन्धनों से मुक्त, शुद्ध, पाप से अबद्ध, मेधावी, मनो का ईश्वर अर्थात् सबके मनों को प्रेरणा देने वाला, और सबको वश में रखने वाला है। स्वयं ही अपनी सत्ता बनाये रखने वाला तथा सब प्रकार की प्रजाओं को रचने वाला है।
इसी परमात्मा के विभिन् नाम हैं।
इन्द्रं मित्रं वरुणमग्निमाहुरथो दिव्यः स सुपर्णो गरुत्मान।
एकं सद विप्रा बहुधा वदन्त्यग्निं यमं मातरिश्वानमाहुः॥१-१६४-४६॥
-पूजनीय ऋक् वेद
एकं सद विप्रा बहुधा वदन्त्यग्निं यमं मातरिश्वानमाहुः॥१-१६४-४६॥
-पूजनीय ऋक् वेद
इस ऋचा का अभिप्राय है कि इन्द्र, मित्र, वरुण और अग्नि परमात्मा के ही नाम हैं। वह परमात्मा ही गुरुत्मान और सुपर्ण कहलाता है। उसे ही यम, अग्नि और मातरिश्वा कहा जाता है। विद्वान् लोग परमात्मा का बहुत प्रकार से केवल इन्ही नामो से वर्णन करते हैं।
अतः जब वेद-शास्त्र में हमारे धर्म मूल की बात ऐसे सुन्दर ढंग से कही है तो फिर मानव-रचित त्रुटिपूर्ण ग्रन्थों का उल्लेख करने से लाभ के स्थान हानि होगी।
6 comments:
अगर मानव से त्रुटि न हो तो वो ईश्वर न कहलाता ।
paratmaa aasthaa kaa deepak hai
कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन। मा कर्मफलहेतुर्भूर्मा ते सङ्गोस्त्वकर्मणि॥ — भगवद्गीता २-४७,
कर्म, भक्ति एवं ज्ञान :- भक्ति एवं ज्ञान से विमुख कर्म केवल महत्वाकांक्षा की पूर्ति का साधन व जीवन में भटकन का पर्याय बन कर रह जाता हैं। इसी तरह कर्म एवं ज्ञान से विमुख भक्ति कोरी भावुकता बन जाती हैं और यदि ज्ञान, कर्म एवं भक्ति से विमुख हो, तो कोरी विचार तरंगे ही पल्ले पडती है। जो मात्र दिवास्वपनो की सृष्टि करती रहती है।
Wonderful blog on Pramatma and god. Shani Shingnapur
इस महान ब्लौग में बड़े ही अच्छे लेख प्रकाशित हो रहे हैं, मेरे पास एक संदे है एक ज़माने से है इसके निवारण हेतु मैं इसका वर्णन कर रहा हूँ, उत्तर दे कर आभारी होंगे।
जब ईश्वर (शक्तिशाली,शरीर-रहित) है तो आज हिन्दू समाज में क्यों मुर्तियों की पूजा की जाती है?
और यह भी कहा गया है कि (न सत्य प्रतिमा अस्ति ईश्वर की कोई मूर्ति नहीं बन सकती)। अब हमने कैसे ईश्वर की मूर्ति बना ली है? क्या आप हमें इस सम्बन्ध में ज्ञान दे सकते हैं ? धन्यवाद
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