Monday, September 15, 2008

श्रीमद्भगवद्गीता

श्रीमद्भगवद्गीता
॥ॐ नमः भगवते वासुदेवाय॥


पहला अध्याय

धृतराष्ट्र बोले:
धर्मक्षेत्रे कुरुक्षेत्रे समवेता युयुत्सवः ।
मामकाः पाण्डवाश्चैव किमकुर्वत संजय ॥१-१॥

संजय बोले:
दृष्ट्वा तु पाण्डवानीकं व्यूढं दुर्योधनस्तदा ।
आचार्यमुपसंगम्य राजा वचनमब्रवीत् ॥१-२॥

पश्यैतां पाण्डुपुत्राणामाचार्य महतीं चमूम् ।
व्यूढां द्रुपदपुत्रेण तव शिष्येण धीमता ॥१-३॥

अत्र शूरा महेष्वासा भीमार्जुनसमा युधि ।
युयुधानो विराटश्च द्रुपदश्च महारथः ॥१-४॥

धृष्टकेतुश्चेकितानः काशिराजश्च वीर्यवान् ।
पुरुजित्कुन्तिभोजश्च शैब्यश्च नरपुङ्गवः ॥१-५॥

युधामन्युश्च विक्रान्त उत्तमौजाश्च वीर्यवान् ।
सौभद्रो द्रौपदेयाश्च सर्व एव महारथाः ॥१-६॥

अस्माकं तु विशिष्टा ये तान्निबोध द्विजोत्तम ।
नायका मम सैन्यस्य संज्ञार्थं तान्ब्रवीमि ते ॥१-७॥

भवान्भीष्मश्च कर्णश्च कृपश्च समितिंजयः ।
अश्वत्थामा विकर्णश्च सौमदत्तिस्तथैव च ॥१-८॥

अन्ये च बहवः शूरा मदर्थे त्यक्तजीविताः ।
नानाशस्त्रप्रहरणाः सर्वे युद्धविशारदाः ॥१-९॥

अपर्याप्तं तदस्माकं बलं भीष्माभिरक्षितम् ।
पर्याप्तं त्विदमेतेषां बलं भीमाभिरक्षितम् ॥१-१०॥

अयनेषु च सर्वेषु यथाभागमवस्थिताः ।
भीष्ममेवाभिरक्षन्तु भवन्तः सर्व एव हि ॥१-११॥

तस्य संजनयन्हर्षं कुरुवृद्धः पितामहः ।
सिंहनादं विनद्योच्चैः शङ्खं दध्मौ प्रतापवान् ॥१-१२॥

ततः शङ्खाश्च भेर्यश्च पणवानकगोमुखाः ।
सहसैवाभ्यहन्यन्त स शब्दस्तुमुलोऽभवत् ॥१-१३॥

ततः श्वेतैर्हयैर्युक्ते महति स्यन्दने स्थितौ ।
माधवः पाण्डवश्चैव दिव्यौ शङ्खौ प्रदध्मतुः ॥१-१४॥

पाञ्चजन्यं हृषीकेशो देवदत्तं धनञ्जयः ।
पौण्ड्रं दध्मौ महाशङ्खं भीमकर्मा वृकोदरः ॥१-१५॥

अनन्तविजयं राजा कुन्तीपुत्रो युधिष्ठिरः ।
नकुलः सहदेवश्च सुघोषमणिपुष्पकौ ॥१-१६॥

काश्यश्च परमेष्वासः शिखण्डी च महारथः ।
धृष्टद्युम्नो विराटश्च सात्यकिश्चापराजितः ॥१-१७॥

द्रुपदो द्रौपदेयाश्च सर्वशः पृथिवीपते ।
सौभद्रश्च महाबाहुः शङ्खान्दध्मुः पृथक्पृथक् ॥१-१८॥

स घोषो धार्तराष्ट्राणां हृदयानि व्यदारयत् ।
नभश्च पृथिवीं चैव तुमुलो व्यनुनादयन् ॥१-१९॥

अथ व्यवस्थितान्दृष्ट्वा धार्तराष्ट्रान्कपिध्वजः ।
प्रवृत्ते शस्त्रसंपाते धनुरुद्यम्य पाण्डवः ॥१-२०॥

अर्जुन बोले:
हृषीकेशं तदा वाक्यमिदमाह महीपते ।
सेनयोरुभयोर्मध्ये रथं स्थापय मेऽच्युत ॥१-२१॥

यावदेतान्निरिक्षेऽहं योद्‌धुकामानवस्थितान् ।
कैर्मया सह योद्धव्यमस्मिन् रणसमुद्यमे ॥१-२२॥

योत्स्यमानानवेक्षेऽहं य एतेऽत्र समागताः ।
धार्तराष्ट्रस्य दुर्बुद्धेर्युद्धे प्रियचिकीर्षवः ॥१-२३॥

संजय बोले:
एवमुक्तो हृषीकेशो गुडाकेशेन भारत ।
सेनयोरुभयोर्मध्ये स्थापयित्वा रथोत्तमम् ॥१-२४॥

भीष्मद्रोणप्रमुखतः सर्वेषां च महीक्षिताम् ।
उवाच पार्थ पश्यैतान्समवेतान्कुरूनिति ॥१-२५॥

तत्रापश्यत्स्थितान्पार्थः पितॄनथ पितामहान् ।
आचार्यान्मातुलान्भ्रातॄन्पुत्रान्पौत्रान्सखींस्तथा ॥१-२६॥

श्वशुरान्सुहृदश्चैव सेनयोरुभयोरपि ।
तान्समीक्ष्य स कौन्तेयः सर्वान्बन्धूनवस्थितान् ॥१-२७॥

अर्जुन बोले:
कृपया परयाविष्टो विषीदन्निदमब्रवीत् ।
दृष्ट्वेमं स्वजनं कृष्ण युयुत्सुं समुपस्थितम् ॥१-२८॥

सीदन्ति मम गात्राणि मुखं च परिशुष्यति ।
वेपथुश्च शरीरे मे रोमहर्षश्च जायते ॥१-२९॥

गाण्डीवं स्रंसते हस्तात्त्वक्चैव परिदह्यते ।
न च शक्नोम्यवस्थातुं भ्रमतीव च मे मनः ॥१-३०॥

निमित्तानि च पश्यामि विपरीतानि केशव ।
न च श्रेयोऽनुपश्यामि हत्वा स्वजनमाहवे ॥१-३१॥

न काङ्क्षे विजयं कृष्ण न च राज्यं सुखानि च ।
किं नो राज्येन गोविन्द किं भोगैर्जीवितेन वा ॥१-३२॥

येषामर्थे काङ्क्षितं नो राज्यं भोगाः सुखानि च ।
त इमेऽवस्थिता युद्धे प्राणांस्त्यक्त्वा धनानि च ॥१-३३॥

आचार्याः पितरः पुत्रास्तथैव च पितामहाः ।
मातुलाः श्वशुराः पौत्राः श्यालाः संबन्धिनस्तथा ॥१-३४॥

एतान्न हन्तुमिच्छामि घ्नतोऽपि मधुसूदन ।
अपि त्रैलोक्यराज्यस्य हेतोः किं नु महीकृते ॥१-३५॥

निहत्य धार्तराष्ट्रान्नः का प्रीतिः स्याज्जनार्दन ।
पापमेवाश्रयेदस्मान्हत्वैतानाततायिनः ॥१-३६॥

तस्मान्नार्हा वयं हन्तुं धार्तराष्ट्रान्स्वबान्धवान् ।
स्वजनं हि कथं हत्वा सुखिनः स्याम माधव ॥१-३७॥

यद्यप्येते न पश्यन्ति लोभोपहतचेतसः ।
कुलक्षयकृतं दोषं मित्रद्रोहे च पातकम् ॥१-३८॥

कथं न ज्ञेयमस्माभिः पापादस्मान्निवर्तितुम् ।
कुलक्षयकृतं दोषं प्रपश्यद्भिर्जनार्दन ॥१-३९॥

कुलक्षये प्रणश्यन्ति कुलधर्माः सनातनाः ।
धर्मे नष्टे कुलं कृत्स्नमधर्मोऽभिभवत्युत ॥१-४०॥

अधर्माभिभवात्कृष्ण प्रदुष्यन्ति कुलस्त्रियः ।
स्त्रीषु दुष्टासु वार्ष्णेय जायते वर्णसंकरः ॥१-४१॥

संकरो नरकायैव कुलघ्नानां कुलस्य च ।
पतन्ति पितरो ह्येषां लुप्तपिण्डोदकक्रियाः ॥१-४२॥

दोषैरेतैः कुलघ्नानां वर्णसंकरकारकैः ।
उत्साद्यन्ते जातिधर्माः कुलधर्माश्च शाश्वताः ॥१-४३॥

उत्सन्नकुलधर्माणां मनुष्याणां जनार्दन ।
नरकेऽनियतं वासो भवतीत्यनुशुश्रुम ॥१-४४॥

अहो बत महत्पापं कर्तुं व्यवसिता वयम् ।
यद्राज्यसुखलोभेन हन्तुं स्वजनमुद्यताः ॥१-४५॥

यदि मामप्रतीकारमशस्त्रं शस्त्रपाणयः ।
धार्तराष्ट्रा रणे हन्युस्तन्मे क्षेमतरं भवेत् ॥१-४६॥

संजय बोले
एवमुक्त्वार्जुनः संख्ये रथोपस्थ उपाविशत् ।
विसृज्य सशरं चापं शोकसंविग्नमानसः ॥१-४७॥

॥ॐ नमः भगवते वासुदेवाय॥

Monday, September 1, 2008

परमात्मा कैसा है?

स पर्यगाच्छुक्रमकायमव्रणमस्नाविर शुद्धमपापविद्धम्।
कविर्मनीषी परिभूः स्वयम्भूर्याथातथ्यतोऽर्थान् व्यदधाच्छाश्वतीभ्यः समाभ्यः॥४०-८॥

यह पूजनीय यजुर्वेद का मन्त्र है। इसका अभिप्राय है कि वह परमात्मा सर्वत्र व्यापक है। शक्तिशाली, शरीर-रहित, घाव रहित, बन्धनों से मुक्त, शुद्ध, पाप से अबद्ध, मेधावी, मनो का ईश्वर अर्थात् सबके मनों को प्रेरणा देने वाला, और सबको वश में रखने वाला है। स्वयं ही अपनी सत्ता बनाये रखने वाला तथा सब प्रकार की प्रजाओं को रचने वाला है।

इसी परमात्मा के विभिन् नाम हैं।
इन्द्रं मित्रं वरुणमग्निमाहुरथो दिव्यः स सुपर्णो गरुत्मान।
एकं सद विप्रा बहुधा वदन्त्यग्निं यमं मातरिश्वानमाहुः॥१-१६४-४६॥
-पूजनीय ऋक् वेद

इस ऋचा का अभिप्राय है कि इन्द्र, मित्र, वरुण और अग्नि परमात्मा के ही नाम हैं। वह परमात्मा ही गुरुत्मान और सुपर्ण कहलाता है। उसे ही यम, अग्नि और मातरिश्वा कहा जाता है। विद्वान् लोग परमात्मा का बहुत प्रकार से केवल इन्ही नामो से वर्णन करते हैं।

अतः जब वेद-शास्त्र में हमारे धर्म मूल की बात ऐसे सुन्दर ढंग से कही है तो फिर मानव-रचित त्रुटिपूर्ण ग्रन्थों का उल्लेख करने से लाभ के स्थान हानि होगी।

Saturday, July 12, 2008

धर्म के मोती

॥जय श्री राम॥


मोरारी बापू जी कहते हैं की तुलसी दास जी ने श्रीरामचरित्रमानस में कहा है की असमय के सात सखा है, धीरज, धर्म, विवेक, साहित्य, साहस, सत्यव्रत, तथा श्री राम जी में भरोसा|

कर्म से फल मिलता है परन्तु कृपा से रस मिलता है|

शान्ति के बिना सुख नहीं मिलता| वह विकृत हो जाता है|

मोरारी बापू जी कहते हैं की आम जीव के हृदय में मोह बसता हैं| यह भी सत्य है जो शास्त्र कहते है की सब जीव के हृदय में भगवान् बसते हैं परन्तु उनका अनुभाव उसी को होता है जो आध्यात्म की राह पर चलता है| श्रीमद्भगवद्गीता में श्री कृष्ण ने कहा है की ॥ईश्वरस्य सर्व भूतानाम॥ और मोह को तुलसीदास जी ने विनय पत्रिका में रावण कहा है की ॥मोह दसमौली तद भ्राद अंहकार॥ श्रीरामचरित्रमानस के लंका कांड में लिखा है की |एहिके के हृदय बस जानकी, जानकी उदर मम बास है| ॥मम उदर भुवन अनेक, लागत बाण सब कर नाश है॥ अर्थात् मोह रूपी रावण के हृदय में जानकी जी हैं| जानकी जी के हृदय में श्री राम जी हैं| श्री राम जी के हृदय में समस्त भ्रमांड है| बापू कहतें है की विज्ञान खोज करे तो पता चलेगा की समस्त भ्रमांड के हृदय में पृथ्वी है| पृथ्वी के हृदय में मनुष्य है| मनुष्य के हृदय में मोह है, और जीवन का चक्र ऐसे ही चलता है| तभी प्रभु श्री राम ने मनुष्य अवतार लिया था|

इश्वर अनुमान का विषय नहीं, हनुमान का विषय है|

विवेक वहाँ है जहाँ अंहकार, द्वेष, पाखण्ड और कपट नहीं है|

कार्यं करोमि न च किचित अहं करोमि। - योग वसिष्ट (Work I do; Not that I do it)

पूजनीय ऋगवेद में कहा गया है कि ॥आ नो भद्राः करतवो कष्यन्तु विश्वतो अदब्धासो अपरीतास उद्भिदः॥१-८९-१॥ - अर्थात् उत्तम विचार सभी ओर से आने दो। (May powers auspicious come to us from every side, never deceived, unhindered, and victorious, That the Gods ever may be with us for our gain, our guardians day by day unceasing in their care.)

धर्म एव हतो हन्ति धर्मो रक्षति रक्षितः। - अर्थात् धर्म उसकी रक्षा करता है, जो धर्म कि रक्षा करता है। (Dharm, when killed, kills and protects, when protected.)

आहार-निद्रा-भय-मैथुनश्च सामान्यम् एतद्पशुभिर्नराणाम्। हि तेषाम् अधिको विशेषः धर्मेण हीनः पशुभिः समानः॥ - अर्थात् भूक, नींद, भय, और पैदा करना यही मनुष्यों और जानवरों में समानता है, परन्तु 'धर्म' या 'धर्मोचित सही राह' ही एक ऐसी चीज़ है जो कि अगर मनुष्य छोड़ दे तो मनुष्य जानवर जैसा सामान्य हो जाएगा। (Food, sleep, fear, and producing offsprings - is common between humans and animals; It is only dharm that is unique to humans, without which, they are no better than animals.)

पूजनीय तैत्तिरीय उपनिषद् में कहा गया है कि ॥सत्यं वद धर्मं चर स्वाध्यायान्मा प्रमदः॥

संदर्भ सूची-

Thursday, July 3, 2008

भजन चलचित्र संग्रह

माता रानी शक्ति जी के भजन

आरती जग जननी में तेरी गाऊँ



भगवान् श्री हरी विष्णु जी के भजन

जिन के हृदय हरी नाम बसे तिन और का नाम लिया न लिया


कभी राम बनके कभी श्याम बनके


जग में सुंदर है दॊ नाम


तन के तम्बूरे में


सुमिरन कर ले



भगवान् श्री राम जी के भजन

तेरे मन में राम तन में राम



भगवान् श्री हनुमान जी के भजन

जिन मन में बसे श्री राम जी उनकी रक्षा करे हनुमान जी



भगवान् श्री कृष्ण जी के भजन

अच्युतम केशवम राम नारायणं कृष्ण दामोदरम


राधा के बिना श्याम आधा


श्याम पिया मोरी रंग दे चुनरिया

Wednesday, July 2, 2008

आरती चलचित्र संग्रह

भगवान् श्री गणेश जी की स्तुतियाँ

जय गणेश जय गणेश जय गणेश देवा


जय देव जय देव श्री मंगल मूर्ति



माता रानी शक्ति जी की स्तुतियाँ

जय अम्बे गौरी


जय संतोषी माता



भगवान् शिव जी की स्तुतियाँ

देवादिदेव भगवान् शिव जी का सहस्त्रनाम मन्त्र


देवादिदेव भगवान् शिव जी का महामन्त्र


श्री काशी विश्वनाथ जी की पूर्णिमा आरती


श्री काशी विश्वनाथ जी की सप्त्रिशी आरती


ॐ जय शिव ओमकारा



भगवान् श्री राम जी की स्तुतियाँ

श्री रामचन्द्र कृपालु भजमन



भगवान् श्री हनुमान जी की स्तुतियाँ

आरती कीजिए हनुमान लला की

हिन्दी व्याकरण / Hindi Vyakaran



श्री राम जी की स्तुतियाँ

ब्रह्मादि देवोंद्वारा भगवान् श्री हरी विष्णु जी की स्तुति


जय जय सुरनायक जन सुखदायक प्रनतपाल भगवंता।
गो द्विज हितकारी जय असुरारी सिंधुसुता प्रिय कंता।।

पालन सुर धरनी अद्भुत करनी मरम न जानइ कोई।
जो सहज कृपाल दीनदायल करउ अनुग्रह सोई।।

जय जय अबिनासी सब घट बासी ब्यापक परमानंदा।
अबिगत गोतीतं चरित पुनीतं मायारहित मुकुंदा।।

जेहि लागि बिरागी अति अनुरागी बिगत मोह मुनिबृंदा।
निसि बासर ध्यावहिं गुनगुन गावहिं जयति सच्चिदानंद।।

जेहिं सृष्टि उपाई त्रिबिध बनाई संग सहाय न दूजा।
सो करउ अघारी चिंत हमारी जानिअ भगति न पूजा।।
जो भव भय भंजन मुनि मन रंजन गंजन बिपति बरूथा।।
मन बच क्रम बानी छाड़ि सयानी सरन सकल सुर जूथा।।

सारद श्रुति सेषा रिषय असेषा जा कहुँ कोउ नहिं जाना।
जेहि दीन पिआरे बेद पुकारे द्रवउ सो श्रीभगवाना।।

भव बारिधि मंदर सब बिधि सुंदर गुनमंदिर सुखपुंजा।
मुनि सिद्धि सकल सुर परम भयातुर नमत नाथ पदकंजा।।

जानि सभय सुरभूमि सुनि बचन समेत सनेह।
गगनगिरा गंभीर भइ हरनि सोक संदेह।।

रक्ताम्भोजदलाभिरामनयनं पीताम्बरालंकृतम्
श्यामांग द्विभुजं प्रसन्नवदनं श्रीसीतया शोभितम्।
कारुण्यामृसागरं प्रियगणैर्भ्रात्रादिभिर्भावितं

वन्दे विष्णुशिवादिसेव्यमनिशं भक्तेष्टसिद्धिप्रदम्।।


कौसल्या माता द्वारा भगवान् की स्तुति


भए प्रगट कृपाला दीनदयाला कौसल्या हितकारी।
हरषित महतारी मुनि मन हारी अद्भुत रूप बिचारी।।

लोचन अभिरामा तनु घनश्याम निज आयुध भुज चारी।
भूषन बनमाला नयम बिसाला सोभासिंधु खरारी।।

कह दुइ कर जोरी अस्तुति तोरी केहि बिधि करौं अनंता।
माया गुन गयानतीत अमाना बेद पुरान भनंता।।

करुना सुख सागर सब गुन आगर जेहि गावहिं श्रुति संता।
सो मम हित लागी जन अनुरागी भयउ प्रगट श्रीकंता।।

ब्रह्मांड निकाया निर्मित माया रोम रों प्रति बेद कहै।
मम उर सो बासी यह उपहासी सुनत धीर मति थिर न रहै।।

उपजा जब ग्याना प्रभु मुसुकाना चरित बहुत बिधि कीन्ह चहै।
कहि कथा सुहाई मातु बुझाई जेहि प्रकार सुत प्रेम लहै।।

माता पुनि बोली सो मति डोली तजहु तात यह रूपा।
कीजै सिसुलीला अति प्रियशीला यह सुख परम अनूपा।।

सुनि बचन सुजाना रोदन ठाना होइ बालक सुरभूपा।
यह चरित जे गावहिं हरि पद पावहिं ते न परहिं भवकूपा।।

बिप्र धेनु सुर संत हित लीन्ह मनुज अवतार।
निज इच्छा निर्मित तनु माया गुन गो पार।।

यन्मायावशवर्ति विश्वमखिलं ब्रह्मादिदेवासुरा
यत्सत्त्वादमृषैव भाति सकलं रज्जौ यथाहेर्भ्रम:।
यत्पादल्पवमेकमेव हि भवाम्भोधेस्तितीर्षावतां
वन्देऽहं तमशेषकारणपरं रामाख्यमीशं हरिम्।।


सीता जी द्वारा पार्वती जी की स्तुति


जय जय गिरिबरराज किसोरी। जय महेस मुख चंद चकोरी।।
जय गजबदन षडानन माता। जगत् जननि दामिनि दुति गाता।।

नहिं तव आदि मध्य अवसाना। अमित प्रभाउ बेदु नहिं जाना।।
भव भव विभव पराभव कारिनि। बिस्व बिमोहनि स्वबस बिहारिनि।

पतिदेवता सुतीय महुँ मातु प्रथम तव रेख।
महिमा अमित न सकहिं कहि सहस सारदा सेष।।

सेवत तोहि सुलभ फल चारी। बरदायनी पुरारि पिआरी।।
देबि पूजि पद कमल तुम्हारे। सुर नर मुनि सब होहिं सुखारे।।

मोर मनोरथु जानहु नीकें। बसहु सदा उर पुर सबहीं कें।।
कीन्हेउँ प्रगट न कारन तेहीं। अस कहि चरन गहे बैदेहीं।।

बिनय प्रेम बस भई भवानी। खसी माल मूरति मुसुकानी।।
सादर सियँ प्रसादु सिर धरेऊ। बोली गौरि हरषु हियँ भरेऊ।।

सुनु सिय सत्य असीम हमारी। पूजिहि मनकामना तुम्हारी।।
नारद बचन सदा सुचि साचा। सो बरु मिलिहि जाहिं मनु राचा।

मनु जाहिं राचेउ मिलिहल सो बरु सहज सुंदर साँवरो।
करुना निधान सुजान सीलु सनेहु जानत रावरो।।

एहि भाँति गौरि असीस सुनि सिय सहित हियँ हरषीं अली।।
तुलसी भवानिहि पूजि पुनि पुनि मुदित मन मंदिर चली।

जानि गौरि अनुकूल सिय हिय हरषु न जाइ कहि।
मंजुल मंगल मूल बाम अंग फरकन लगे।।

भवानीशंकरौ वन्दे श्रद्धाविश्वाससरूपिणौ।
याभ्यां विना न पश्यन्ति सिद्धा:स्वान्त:स्थमीश्वरम्।।

Tuesday, July 1, 2008

सनातन धर्म शब्दावली / Sanatan Dharm Glossary

  1. सनातन वेद धर्म अनुयायी - Sanatan Vedic Dharm Anuyayi - Eternal Righteousness Followers of Ved
  2. भारतीय उप-महाद्वीप - Bharatiya Up-Mahadweep - Indian sub-continent
  3. शास्त्र - Shastr - Scriptures
  4. हिन्दी व्याकरण - Hindi Vyakaran - Hindi Grammar
  5. मन्दिर - Mandir - Vedic Temple
  6. पर्वत - Parvat - Mountain
  7. ऋचा - Tricha - Verse
  8. पूजनीय - Pujniya - Holy and Divine

Myths busted about Sanatan Vedic Dharm and Bharat


  1. Hindu: Hindu is a name coined by Persian intruders for the people living in Bharatiya Up-Mahadweep*. The Persian intruders could not pronounce Sindhu in Persian language, and tagged us Sanatan Vedic Dharm Anuyayi as "Hindus". There is no mention of word "Hindu" in any of our holy Shastr, there is only Sanatan Vedic Dharm which we all should follow. The word Hindu is nothing but a misnomer.

  2. Hindukush: This is also a misnomer which has stuck over last few hundred years. There are two known explanations I have come across suggesting this. The first one is that this mountain range which was part of Bharat, now known as present day Kabul in Afghanistan, is the place where Sanatan Vedic Dharm Anuyayi (Hindus) were decimated, hence the word Hindukush. In the past there used to be hundreds of Shiv ji's mandir and more recently known destroyed statues of Buddha in Bamiyan by Taliban. Now there is no trace of any Mandir, no Buddha statue and the mountain range we know about is known as Hindukush. It is mentioned in this explanation that this mountain range was originally known as Hinduraj.

    As per the other explanation we have to remember that two main languages of Afganishtan for long have been Dari and Pushto. While Pushto is the language of Pathans, Dari (form of Farsi) is spoken by people of Afganishtan who have Perisan origin. From the time of the Sassanid kingdom in Iran, the term "Hindu" means anybody living near river Sindhu as proved in the busted myth #1 above. And "Kush" can be a corruption of the Farsi word "Kuh"/"Koh" meaning mountain. So "Hindukush" may mean people living in the mountains near river Sindhu. Of course later Arabi traveler and writer Ibn Batuta wrote that since a large number of the slaves brought from Bharat died in the cold of the mountain, so the term means "slayer of Bharatvasi".

    Only a community like the Sanatan Vedic Dharm Anuyayi (Hindus) can tolerate a mountain range with a name that celebrates their elimination.

    Old Sanskrit scriptures and documents refer it to as Pariyatra Parvat.


  3. इन्द्रं मित्रं वरुणमग्निमाहुरथो दिव्यः स सुपर्णो गरुत्मान|
    एकं सद विप्रा बहुधा वदन्त्यग्निं यमं मातरिश्वानमाहुः॥१-१६४-४६॥
    -पूजनीय ऋगवेद


    इस ऋचा का अभिप्राय है कि इन्द्र, मित्र, वरुण और अग्नि परमात्मा के ही नाम हैं। वह परमात्मा ही गुरुत्मान और सुपर्ण कहलाता है। उसे ही यम, अग्नि और मातरिश्वा कहा जाता है। विद्वान् लोग परमात्मा का बहुत प्रकार से इन्ही नामो से वर्णन करते हैं।

    indraṃ mitraṃ varuṇamaghnimāhuratho divyaḥ sa suparṇo gharutmān|
    ekaṃ sad viprā bahudhā vadantyaghniṃ yamaṃ mātariśvānamāhuḥ॥1-164-46॥
    -Pujniya Rigved


    This pujniya Tricha from our pujniya Rigved has been misinterpreted, part-of-it taken out of context and misrepresented, or not taken in full context.



*Please refer to Sanatan Vedic Dharm Glossary for unknown words and their explanations.

Sources:

Monday, June 30, 2008

त्रिकाल संध्या / Trikaal Sandhya

शास्त्रों में लिखा है, हमें दिन में तीन महत्वपूर्ण समय पर प्रभु को अवश्य याद करना चाहिए। यह तीन प्रकार के दान होते हैं।
  1. स्मृति दान
  2. शक्ति दान
  3. शान्ति दान
स्मृति दान
स्मृति दान प्रातः समय पर होता है। प्रातः उठते ही प्रभु को याद करते हुए, अपने कर अर्थात हाथों को देख कर यह श्लोक बोलने चाहिए,

कराग्रे वसते लक्ष्मीः करमूले सरस्वती।
करमध्ये तु गोविन्द: प्रभाते कर दर्शनम॥
समुद्रवसने देवि पर्वतस्तनमंडले।
विष्णुपत्नि नमस्तुभ्यं पादस्पर्श क्षमस्व मे॥
वसुदेवसुतं देवं कंसचाणूरमद्रनम्।
देवकीपरमानन्दम कृष्णं वन्दे जगद्गुरुम्॥

शक्ति दान
शक्ति दान भोजन के समय होता है। भोजन ग्रहण करने से पूर्व, प्रभु को याद करते हुए यह श्लोक बोलने चाहिए,

यज्ञशिष्टाशिनः सन्तो मुच्यन्ते सर्वकिल्विषैः।
भुञ्जते ते त्वघं पापा ये पचम्त्यात्मकारणात्॥
यत्करोषि यदश्नासि यज्जहोषि ददासि यत्।
यत्तपस्यसि कौन्तेय तत्कुरुष्व मदर्पणम्॥
अहं वैश्र्वानरो भूत्वा ग्राणिनां देहमाश्रितः।
प्राणापानसमायुक्तः पचाम्यन्नं चतुर्विधम्।।
ॐ सह नाववतु सह नौ भनक्तु सह वीर्यं करवावहै।
तेजस्वि नावघीतमस्तु मा विहिषावहै।।
ॐ शांतिः शांतिः शांतिः।।

शान्ति दान
शान्ति दान सोने के समय होता है। सोने से पूर्व, प्रभु को याद करते हुए यह श्लोक बोलने चाहिए,

कृष्णाय वासुदेवाय हरये परमात्मने।
प्रणतक्लेशनाशाय गोविन्दाय नमो नमः॥
करचरणकृतं वाक् कायजं कर्मजं वा
श्रवणनयनजं वा मानसं वाअपराधम्।
विहितमविहितं वा सर्वमेतत् क्षमस्व
जय जय करुणाब्धे श्री महादेव शंभो॥
त्वमेव माता च पिता त्वमेव
त्वमेव बन्धुश्च सखा त्वमेव।
त्वमेव विद्या द्रविणं त्वमेव
त्वमेव सर्वं मम देवदेव॥

Sunday, June 29, 2008

सनातन धर्म ब्लॉग पर आपका स्वागत है |

॥ॐ जय श्री गणेशाय नमः॥

सनातन धर्म, यानी वह सत्य जिसका ना कोई आदि है, ना कोई अंत है। जो हमें जीवन का सत्य बताता है, जीवन जीना नही। श्री कृष्ण जी ने अपने पुण्य वचनो में गीता संवाद के समय बताया था की ॥कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेष कदाचन। मा कर्मफलहेतुर्भूर्मा ते सङ्गोस्त्वकर्मणि॥ — भगवद्गीता २-४७, अर्थात हमें कर्म करते रहना है, और फल की इच्छा नहीं करनी चाहिए। यही सत्य है, यही सनातन धर्म है। आइये, हम मिल कर इस पुण्य और भव्य सत्य को समझे और हम धर्म की राह पर हमेशा चलते रहे, ऐसी प्रभु हम पर कृपा बरसाएं।


॥जय माता की॥ ॥हर हर महादेव॥
॥जय श्री राम॥ ॥जय श्री कृष्ण॥


यदा यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत।
अभ्युत्थानं अधर्मस्य तदात्मानं सृजान्यहम्॥७॥
परित्राणाय साधूनां विनाशाय च दुष्कृताम्।
धर्म संस्थापनार्थाय सम्भवामि युगे युगे॥८॥

- श्रीमद्भगवद्गीता


॥राम काजु कीन्हे बिनु मोहि कहाँ बिश्राम॥

- श्री रामचरित्रमानस सुंदरकाण्ड दोहा १